
पुणे.शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम करने वाला ‘कॉमन वैरिएबल इम्यून डिफिशिएंसी’ (CVID) और शरीर की अपनी ही लाल रक्त कोशिकाओं पर हमला करने वाला ‘ऑटोइम्यून हेमोलिटिक एनीमिया’ (AIHA) जैसे दुर्लभ रोगों से पीड़ित 20 वर्षीय युवक का पुणे के रक्त विकार विशेषज्ञों ने उसके अपने ही कोशिकाओं का उपयोग कर ऑटोलॉगस ट्रांसप्लांट कर सफलतापूर्वक इलाज किया। यह उपचार यशोदा हेमेटोलॉजी क्लिनिक और रूबी हॉल, पुणे में किया गया।
पुणे के वाघोली इलाके में रहने वाला सुमित (बदला हुआ नाम) 2020 में जब 16 साल का था, तब हर 6-7 महीनों में उसका हीमोग्लोबिन कम हो जाता था। कई उपचारों के बावजूद कोई लाभ नहीं हुआ। तब वह रक्त विकार विशेषज्ञ (हैमेटोलॉजिस्ट) डॉ. विजय रमणन के पास आया। डॉ. रमणन ने उसे हीमोग्लोबिन बढ़ाने के लिए एक इंजेक्शन दिया, लेकिन चार महीने बाद सुमित फिर उन्हीं शिकायतों के साथ वापस लौटा। इस बार न सिर्फ हीमोग्लोबिन कम था, बल्कि प्लेटलेट की संख्या भी घट गई थी और रक्त शर्करा का स्तर 600 तक पहुँच गया था। इसके चलते उसे टाइप 1 डायबिटीज़ का निदान हुआ। आगे की जांच में यह सामने आया कि उसे CVID नामक अनुवांशिक रोग है।
डॉ. रमणन ने उसकी शुगर को नियंत्रित करने के लिए इंसुलिन उपचार शुरू किया और CVID व AIHA के लिए ऑटोलॉगस ट्रांसप्लांट किया। इस प्रक्रिया में मरीज की अस्थि मज्जा से स्टेम सेल निकालकर उसे वापस प्रत्यारोपित किया जाता है। इसके बाद सुमित की प्लेटलेट संख्या सामान्य हुई, टाइप 1 डायबिटीज़ समाप्त हो गई और हीमोग्लोबिन स्तर भी बढ़ा। हीमोग्लोबिन पूरी तरह सामान्य नहीं हुआ था, इसलिए अतिरिक्त इंजेक्शन से उपचार शुरू किया गया। हर 4-5 महीने में नियमित फॉलोअप के बाद अब मरीज पूरी तरह ठीक है। वर्तमान में वह इंजीनियरिंग में प्रवेश लेकर पढ़ाई कर रहा है, ऐसी जानकारी डॉ. रमणन ने दी।
कॉमन वैरिएबल इम्यून डिफिशिएंसी बच्चों में पाई जाने वाली एक अनुवांशिक बीमारी है। इसके निदान के लिए नेक्स्ट जेनरेशन सीक्वेंसिंग (NGS) टेस्ट की जरूरत होती है।
टाइप 1 डायबिटीज़ के मरीजों में निदान के एक वर्ष के भीतर ऑटोलॉगस ट्रांसप्लांट किया जाए तो यह कारगर साबित हो सकता है। संधिवात (रूमेटॉइड आर्थराइटिस) या प्रतिरोधक क्षमता कम करने वाले क्लैरोसिस जैसे रोगों में भी यह तकनीक प्रभावी हो सकती है।
– डॉ. विजय रमणन, रक्त विकार विशेषज्ञ, यशोदा हेमेटोलॉजी क्लिनिक