निजीकरण की गिरफ्त में महापालिका की स्वास्थ्यसेवा! मुफ्त सेवा सिर्फ कागजों तक सीमित

पुणे. शहर के लाखों गरीब और जरूरतमंद मरीजों को स्वास्थ्यसेवा प्रदान करने की जिम्मेदारी उठाने वाली पुणे महानगरपालिका अब निजीकरण की गिरफ्त में आ चुकी है। “सभी के लिए गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्यसेवा” का संकल्प अब सिर्फ कागजों तक सिमटकर रह गया है। महापालिका के अंतर्गत आने वाले अस्पतालों में सोनोग्राफी, सीटी स्कैन, एमआरआई, डायलिसिस, हार्ट टेस्ट और सर्जरी जैसी जरूरी सेवाएं अब निजी एजेंसियों को सौंप दी गई हैं।
गरीबों की पहुंच से बाहर हुई सेवाएं
कमला नेहरू, सुतार अस्पताल, राजीव गांधी अस्पताल जैसे प्रमुख सरकारी अस्पतालों में निजी संस्थाओं के माध्यम से सेवाएं दी जा रही हैं, लेकिन इनके शुल्क गरीब मरीजों की पहुंच से बाहर हैं। परिणामस्वरूप कई मरीजों को “कल आओ”, “परसों आओ” कहकर टाल दिया जाता है या उन्हें बिना इलाज के ससून अस्पताल भेज दिया जाता है। यह शिकायतें लगातार मरीजों की ओर से मिल रही हैं।
उदाहरण के तौर पर कमला नेहरू अस्पताल में एमआरआई के लिए 2,000 से 5,000 रुपये तक वसूले जा रहे हैं, जबकि सीटी स्कैन का खर्च 6,486 रुपये तक पहुंचता है।
सुतार मल्टीस्पेशलिटी अस्पताल में क्रस्ना डायग्नोस्टिक्स सेंटर द्वारा 200 से 9,000 रुपये तक शुल्क लिए जाते हैं।
राजीव गांधी अस्पताल में कोठारी चैरिटेबल ट्रस्ट के अंतर्गत डायलिसिस सेंटर चलाया जा रहा है, जहां एक सत्र का शुल्क 950 रुपये और किट के लिए 800 रुपये वसूले जाते हैं, जबकि सरकारी दर केवल 400 रुपये है।
मुफ्त इलाज के लिए नगरसेवकों की चौखट पर मरीज
महापालिका की योजनाओं और शहरी गरीब योजना के तहत मुफ्त इलाज की सुविधा उपलब्ध होने के बावजूद अस्पताल के कर्मचारी इस बारे में कोई जानकारी नहीं देते। उलटे मरीजों को पूर्व नगरसेवकों के पास भेजा जाता है, जहां से उन्हें इलाज के लिए सिफारिश पत्र लाना पड़ता है।
कौन-कौन सी सेवाएं निजी एजेंसियों को दी गईं?
सोनोग्राफी, एक्स-रे, एमआरआई
हृदय रोग उपचार
डायलिसिस
आईसीयू सुविधाएं
विभिन्न प्रकार की सर्जरी
‘स्वास्थ्य’ – अधिकार या व्यापार?
महापालिका के बजट में स्वास्थ्य सेवा के लिए अलग निधि होते हुए भी हर साल निजीकरण का रास्ता अपनाया जाता है। डॉक्टर, स्टाफ और उपकरणों की कमी का हवाला देकर ‘पीपीपी’ (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप) और ‘डीबीओटी’ (डिजाइन-बिल्ड-ऑपरेट-ट्रांसफर) मॉडल पर सेवाएं ठेके पर दी जा रही हैं।
यद्यपि शुल्क निजी अस्पतालों की तुलना में कम हैं, लेकिन दिहाड़ी मजदूर और निम्न आय वर्ग के लिए ये भी भारी हैं। ऐसे में यह सवाल गंभीर हो गया है कि “महापालिका की स्वास्थ्य सेवा जनता के लिए है या एजेंसियों के लिए?”। “स्वास्थ्य सेवा नागरिकों का अधिकार है या मुनाफे का जरिया?”